क्या ये ही तर्क हैं, जिन्हें अरविंद ने अपनी उम्मीदवारी का आधार बनाया है? आधार तो एक दूसरा ही तर्क है। उसके बारे में बाद में बात करेंगे। लेकिन इन तर्कों की भी परीक्षा करें तो अरविंद की उम्मीदवारी का कोई औचित्य सिद्ध नहीं होता। पहली बात तो यह कि यह चुनाव दिल्ली की तरह कोई स्थानीय चुनाव नहीं है। यह राष्ट्रीय चुनाव है। वाराणसी से जो भाजपा का उम्मीदवार है, वह प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार है। दिल्ली की मुख्यमंत्री को हराकर आप मुख्यमंत्री बन गए थे लेकिन वहां बुरी तरह से असफल हुए, रणछोड़दास बन गए। अब आप मोदी को हराकर प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल होना चाहते हैं? पतंगबाजी की भी हद होती है! महत्वाकांक्षा, क्या पागलपन में बदल गई है? आप राजनीतिज्ञ बनना चाहते हैं या विदूषक? खुद अरविंद ने कहा है कि मैं चुनाव जीतने के लिए वाराणसी नहीं आया हूं। तो फिर क्यों आए हैं? मोदी को हराने के लिए!! क्या वाराणसी की जनता को आपने बुद्धिहीन समझ रखा है, जो ऐसी आदमी के लिए अपना वोट खराब करेगी, जो कहता है कि मैं सिर्फ हारने के लिए और हराने के लिए आया हूं।
अरविंद ने कहा अब भ्रष्टाचार नहीं, धर्मनिरपेक्षता असली मुद्दा है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही आम आदमी पार्टी बनी और लड़ी। अब आप मुद्दा बदल रहे हैं। क्यों? क्या भ्रष्टाचार खत्म हो गया है? नहीं! तो फिर आप अभी जो कुछ कर रहे हैं, क्या यह उन भ्रष्टाचारियों की मदद नहीं है, जिन्हें हराने के लिए आप पैदा हुए थे? उन्होंने आप के मुंह में मुख्यमंत्री पद का रसगुल्ला रख दिया तो आप उनको अब बनारस के लड्डू खिलाने पर आमादा हो गए हैं।
मोदी ने एके-49 कहकर अरविंद को अनावश्यक प्रचार दिया है। प्रचार ही ‘आप’ का प्राणवायु है। मोदी के विरुद्ध लड़ने की भी यही मूल प्रेरणा है। अरविंद चाहता तो वह सोनिया और राहुल के विरुद्ध भी लड़ सकता था लेकिन सबको पता है कि वे डूबते जहाज के कप्तान हैं। प्रचार तो वहां से भी मिलता लेकिन अमेठी और रायबरेली आज वाराणसी के सामने क्या हैं? बिना चाश्नी की जलेबी हैं। असली केसरिया जलेबी तो वाराणसी में ही है। जीत की जलेबी तो ‘आप’ को मिलने से रही लेकिन प्रचार के पत्तल-दोने ही वे खड़काते रहें तो यह भी क्या कम है? more