भ्रष्ट जो होता एक दिन, पद से गिर जाता है।
अपनी करतूती का फल पाता, बार बार पछताता है॥१॥
केवल शक्ल देख कर, लोग राय दे देते हैं।
कालान्तर में भेद खुल जाता, तब धरना दे देते हैं॥२॥
बिन जाने परखे किसी को, कुछ कहना बेकार है।
अपना अपना दोष देखना, क्यों करना झूठा व्यवहार है॥३॥
जब शासन-तंत्र की बुनियाद, भ्रष्टता में जम जाती है।
खोखली होकर रूग्ण हो जाती, और वह ढह जाती है॥४॥
ऐसी दशा में कब तक, ढाँचा उसका टिक सकता है?
एक दिन बाहिरी झटके से, भहरा कर गिर सकता है॥५॥
फिर अनेकों लोगों पर, कयामतें बड़ी आ जाती है।
जीवन जीना कठिन हो जाता, वोट देकर जनता पछताती है॥६॥
ऐसी भ्रष्टता की चेतना, सारी जनता में समाई है।
ऊपर से नीचे तक सब भ्रष्ट, इसकी बहुत बड़ी गहराई है॥७॥
फिर उसे ठीक होने में, अनेकों वर्ष लग जाते हैं।
मानवता के अमूल्य समय, अनैतिकता में बीत जाते हैं॥८॥
धर्महीन जीवन जीना, क्या जीवन कहलाता है?
आगे बढ़ने के बदले मानव, बहुत पीछे पिछड़ जाता है॥९॥
इसको कतई प्रगति नहीं, गतिरोध अवरोध कहते हैं।
ऐसी दशा में तंग आकर, लोग प्रतिरोध करते हैं॥१०॥
तब अपनी गल्ती स्वीकर कर, जो सही मार्ग अपनाते हैं।
सुबह के भूले शाम को घर आते, भूले नहि कहलाते हैं॥११॥
बंधु! बात बड़ी गंभीर है, समझाना इसे टेढ़ी खीर है।
फिर भी कोशिश करना, लगाना निशाने पे तीर है॥१२॥
जो आगे बढ़ने का प्रयत्न करते, प्रभु उनके सहायक हैं।
पर सहज सत्य को पाने हेतु, क्या हम उसके लायक हैं?॥१३॥
जरूरत है आज ऐसे इंसानों की, जो भ्रष्टाचार से लड़ सकते हैं।
अपने भीतर की सफाई करते, बाहर से नहिं डरते हैं॥१४॥
यद्यपि भ्रष्टाचार के विरोध में, आवाजें लोग उठाते हैं।
भीतर से बड़े ही भ्रष्ट होते, बाहर से निर्दोषता दिखाते हैं॥१५॥
ऐसी दोहरी चाल चलने वालों की, आज अधिकाई है।
चोर लुटेरे और दगाबाजों की, आज बन आई है॥१६॥ more